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Saturday, January 3, 2015

सहयोग से समृधि

सहयोग से समृधि,
सहकारिता खुशहाली,
एक रोमांचक यात्रा है,
जिसमे एक दुसरे की जरूरत,
एक दुसरे का साथ बनाती है,
जरूरत का न होना अलग करती है,
सच है,
आभाव और आभाव की पूर्ति,
संबंधो के निर्माण में,
संबंधो के बिखराव में,
ठीक वैसा ही है,
जैसा लजीज भोजन भी,
पेट भरने के बाद,
बिष सा तिरस्कृत हो जाता है,
और साधारण भोजन भी,  
भूख में अमृत.
वैसे भोजन तो,
पेट के कोष्ठानुसार होता है,
पर समर्थ-समृधि की कोई सीमा नहीं,
और यहीं कुछ भ्रम,
कुछ बिसंगतियाँ,
क्रमशः समर्थ होते हुए को घेरता है,
क्यूंकि कुछ ‘अपने’ लोगों का साथ पाकर,
कुछ 'अपनों' से अलग होकर,
कुछ आगे आकर,
एक पड़ाव पर,
कुछ खालीपन महशुश करते है,
और फिर बिपरीत चलते है,
एकाकी होना एक बात है,
और टूटना दूसरी,
ये तो नियति का चक्र ही ऐसा है,
की जो होना है सो होता है,
यहीं अर्जुन ने,
नियति का निमित्त होना स्वीकारा था, 
सहयोग-असहयोग,
एक निर्णय है,
एक सोच है,
जो समय में महत्व रखती है,
समय के प्रवाह में नहीं,
क्यंकि समय के प्रवाह का,
एक छोटा सा हिस्सा ही आपका होता है,
पूरा समय नहीं,