तूफान के खतरे से,
ऊँची दीवारों में,
मैंने खुद को कैद कर लिया,
पर !
तूफान तो कभी आया नहीं,
अलबत्ता,
ताजि हवाओं से भी बंचित रह गया,
आज जब उम्र के पड़ाव पड़,
पीछे मुड़ कर देखता हूँ,
तो याद आती है वो कहानी,
जिसमे मुर्ख खरगोस ने,
आसमान गिरने के डर से,
अफरातफरी मचाई थी,
इससे तो अच्छा यही था,
जाँच करता,
पड़ताल कड़ता,
तूफान का इंतजार करता,
रोमांचक जद्दोजहत से,
कम से कम,
जीने का अहसास तो होता,
खुद के पुरुषार्थी होने पे गर्व तो होता,
सच है,
तूफान बाहर हो या भीतर,
शांत होना,
समझदार होना,
सहयोगी होना,
विवेकी होना,
ईस्वर पे समर्पित हो,
बस प्रयत्न करते करना ही,
उसके भबड़ से बाहर निकलती है,
तभी तो इतिहास,
उसका गौरव गाथा गाति है,
कितने ही आये और,
खो गए,
डर की दुबकियों में,
बह गए,
रह गए वही जीबंत,
जिनके कदम रुके नहीं कभी,
निशां कदमो के बने ना बने,
लहरों पे चलने का,
अहसास ही अनोखा है,
और चुनौती तो तब है,
जब खुद को ही नहीं,
कश्ती को भी बचाना हो,
बिखरते हुए,
टूटते हुए,
लहरों की मार सहते हुए,
मन से बेमन से,
सबको साथ लिए,
जब जीने का एक भी मौका आये,
तब उसकी ऊँगली पकड़,
भबड़ से बाहर निकल,
सम्मिलित स्वरों में गीत गाया जाये,
2 comments:
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