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Thursday, September 3, 2015

स्वर्ण जयंती जवाहर स्कूल धुबरी असम २०१५

स्वर्ण जयंती जवाहर स्कूल,
ऐसा सावन लाया है,
चेहरे खिलने लगे है,
बिछरे मिलने लगे हैं,
खुशियों का आंशु भावविभोर,
सभी झूम रहे है चरों ओर,
उंच-नीच-भेदभाव-अहंकार से मुक्त,
सबके शिश झुकने लगे है,
नए-पुराने शिक्षक-विद्यार्थी,
फिर से एक प्रांगन में,
ज्ञान का सन्देश,
गुरु का आशीष,
मधुर स्वरों में बहने लगे है,
सबके मन गुनगुनाने लगे है,
तनमन सब थिरकने लगे है,
एक दुसरे को गोरवान्वित करने को,
सबके सब हाथ बटाने लगे है,  
स्मृतियाँ ताजि हो गयी,
वर्तमान सुन्दर सुवाषित लगने लगा है,
भविष्य भी उज्जवल दिखने लगा है,
 उच्च आदर्शो को लिए चले थे .....
स्वर्ण जयंती की वारिस में भी भीग-भीग कर,
उर्जावान हो सबके सब चलने लगे है,
एक दुसरे की खुशियों में शामिल,
मन से मन मिलने लगे है, 

Tuesday, May 5, 2015

बहुओं से उसका अतीत न छीनो

कुछ लोगों(ससुराल बाले) को,
अपने बहुओं को,
मैके से अलग करने की कोसिस करते देखा है,
क्योंकि उन्हें डर होता है,
बहुएं उनके घर की बात इधर उधर करती है,
जिससे उनके सम्मान को ठेस पहुंचती है,
उनके अहंकार पर चोट पहुंचता है,
मुखौटा उतरने का खतरा होता है,
अब झूठी आन-बान-शान,
बचाए रखने को,
उन्हें दवाब की निति अपनानी पड़ती है,
स्नेह की बजाय,
तिरस्कार का प्रहार कर,
बहुओं को तोड़ने की प्रक्रिया चलती है,
महीनो सालो तक,
बहुओं की सहने की परीक्षा होती है,
जब तक वो शारीरिक और मानसिक रूप से गुलाम न हो जाये,
तब तक उन्हें (ससुराल बाले) शांति नहीं मिलती,
इसी बिच कई बार,
बहुएं या तो टूट जाती है,
या तो मार दी जाती है,
या तो पागल बना दी जाती है,
मैके-ससुराल की खिंच-तान,
महाभारत का रूप ले लेती है,
अब सभी को पता है,
महाभारत रक्त पात से सना है,
“जित” किसी की भी हो,
लहू-लुहान सभी होते है,
अपनो को चोटिल होते देख,
कोई भी खुश नहीं रह सकता,
परिणाम सदा घातक ही होता है,
कुछ भी हो अपनो से अपनो का बिछराब ही होता है,
अब ये प्रश्न उठता है,
सदियों से ये कहानिया(महाभारत) घरो में चर्चित रही है,
फिर भी लोग,
न जाने किस अंधेपन में इसे दोहराते रहते है,
क्या भक्त प्रह्लाद सा होना इतना कठिन है ?
क्या स्नेह करना,
सहज होना,
अहंकार रहित होना,
सिखने-सिखाने की चीज है,
या फिर ये बनाबट ही है,
अगर ये बनाबट है तो,
सदा ये महाभारत चलता ही रहेगा,
अगर  ये सिखने-सिखाने की चीज है,
तो हम इसे बदल सकते है,
रोक सकते है,
ससम्मान जीने का अधिकार सभी को है,
ऐसा मान लेने मात्र से,
स्नेह का सिंचन,
प्रेम की खुशबू,
बहुओं को खुद ही समर्पण को बाध्य कर देगा,
सच को एक बार परख के तो देखो,
उजियारा ही उजियारा होगा,
खुशियाँ ही खुशियाँ होगी,
एक छोटा सा प्रयोग ही काफी है इसे समझने को,
बंद हो जाओ एक घर में एक फुल के गमले के साथ,
कुछ ही दिनों में मुर्झाजाओगे दोनो,
ताज़ी बहती हवाओं में स्वतः ही झुमोगे,
खुशबु स्वतः ही फैलेगा,
कुछ करने की जरूरत नहीं,
बस प्रकृति को समझाना है,
बहती हुई झरने का,
संगीत बन जाना है,
कुछ ऐसा कभी न करो,
की इतिहास की दलदल में समां जाओ,
क्योंकि इतिहास के शीर्ष पर वही चमकते है,
जिनका ह्रदय स्नेह से भरा है,
कहा भी जाता है,
भरा नहीं वो भावो से जिसमे बहती रश धार नहीं,
ह्रदय नहीं वो पत्थर है जिसमे अपनों का प्यार नहीं,
झील को बहने से मत रोको,
उसी से उसकी सुन्दरता है,
अगर उसे रोकोगे,
तो कालांतर में या तो वो सड़ जाएगी,
या फिर त्रासदी लाएगी,
ये जीवन बहुत छोटी है,
इसे मानवता की जरूरत है,
दानवता की नहीं,
खुश रहना हमारी प्राथमिकता है,
जिओ और जीने दो,
बहुओं से उसका अतीत न छीनो,
अतीत उसकी ख़ुशी है और,
उसकी ख़ुशी ही तुम्हारा भविष्य है,

Saturday, January 10, 2015

मैंने छोड़ दिया है खुद को

मैंने छोड़ दिया है खुद को,
गर्मियों में उस उड़ते हुए,
रुई के गोल फाहे सा,
जो यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ,
सुन्दर दिखता है,
महत्वपूर्ण लगता है,
बच्चे भागते है उसके पीछे,
हाथों पे ले खूबसूरती से,
देखतें है निहारतें है,
और थोड़ी सी चुक से,
खो देतें है उसे,
उसका स्वरुप बदल देते है,
कुछ ऐसा ही लगता है,
महसुस होता है,
जब मेरा खुद को महत्वहीन समझना,
खुद को औरो के अनुसार,
उनकी ईक्षाओं पे समर्पित करना,
कोशिश करना,
उस रुई के फाहे सा,
उनके फूंक पे उड़ना,
अच्छा लगता है,
उन्हें खिलखिलाते हुए,
हँसते हुए देखना,
और ये भी महसुस करना,
अनोखा ही लगता है,
कि वे कैसे खिल्ली उड़ाते है,
मजाक बनाते है,
बुद्धू समझते है,
उनका अचंभित चेहरा,
कौतुहल प्रश्नचिन्हित मुस्कान,
कि कैसे कोई इतना महत्वहीन हो सकता है,
फिर संवेदना से,
से ये बताने की कोशिश,
कि खुद को महत्वपूर्ण बनाना,
कितना महत्वपूर्ण है,
कि वे सचमुच आहत है,
कि कोई मुझे बुद्धू समझे,
वे दिल से चाहते है,
कि मेरी सहजता की कद्र हो,
उन्हें भी है,
उनका स्नेह फिर इतना बरसता है,
कि मैं उनके स्नेह में डूब जाता हूँ,
फिर महत्वपूर्ण होना नहीं होना,
कहाँ याद रहता है,
उनका मेरे पे हँसना,
हँसते हुए उन्हें देख,
मेरा उन पर हँसना,
 अद्भुत ही है,
अद्भुत ही है,
उस स्नेह को पाना,
जो शर्तो-अपेक्षाओं से रहित हो,
अहंग की परिधियों में सहज समाना,
ह्रदय के भीतर स्थान बनाना,  
रुई के फाहे सा,
खुद को को पूरा-पूरा छोड़ना,

Thursday, January 8, 2015

बेख़ौफ़ गीत .....

हरेक की अपनी सीमाएँ है,
मर्यादा की डोर से लिपटे,
कुछ अपनी भावनाए दबाये रखते है,
कुछ मर्यादा की सीमओं में भी,
बेख़ौफ़ गाते है,
कुछ इससे आगे बढ़कर,
मर्यादा लाँघ जाते है,
कुछ भी हो,
भावनाओं की उहापोह का संतुलन,
एक रोमाँच से कम नहीं,
मर्यादा से दो दिशाएँ,
एक डर की ओर,
दूसरी आस्था की ओर,
जब अंधी हो कर निकलती है,
दोनो ही स्थितियां,
दुखों के गर्त में लुढ़का देती है,
जहाँ से बाहर निकलना,
बरा ही कठिन होता है,
इसके विपरीत,
जब द्रष्टा हो,
डर और आस्था को विश्लेषित कर,
खुली आँखों से,
टस्त रहने की कोसिस की जाये,
बेख़ौफ़ गीत गायी जाए,
तो बस अनोखा ही अनोखा होता है,
सीमाओं से पार अनंत,
अद्भुत आनंद होता है,