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Monday, December 22, 2014

परिस्थितियाँ

परिस्थितियों पर,
मेरी व्याख्याएँ,
मेरी दृष्टिकोण,
मेरी भावनाओं की,
उहापोह,
बस वैसी ही है जैसी,
सीसे के भीतर से,
बाहर तो देख सकते है,
पर बाहर से भीतर नहीं,
एक तरफा ही दिखता है,
मैं कितनी ही कोसिस क्यूँ न करूँ,
तुम्हारे भीतर नहीं झांक सकता,
तुम्हारे मन की बात नहीं जान सकता,   
और जाना भी नहीं जा सकता,
वैसे मुझे जानने की जरूत भी नहीं,
मुझे तो बस,
ध्यान रखना चाहिए,
की ये एक दिवार है,
जिसेके मैं बाहर हूँ,
और जिसका हिस्सा,
मैं हो ही नहीं सकता,
कुछ भी अनुमान लगा लेना,
मेरी बाध्यता है,
पर एक कौतुहल,
मानवीय स्वभाव,
प्रेरित करती है,
उद्वेलित करती है,
और भीतर एक प्रश्न उठता है,
क्या जानने को,
हिस्सा होना जरुरी है,
बिना हिस्सा हुए,
पारदर्शी नहीं हुआ जा सकता,
ऐसा हो सकता है,
हिस्सा होने की जरूरत भी नहीं,
बस सीसे से फ़िल्टर निकालना होगा,
और साबधानी रखनी होगी,
पर !
सीसा अगर कमजोर हो तो,
खतरनाक भी हो सकता है,
ऐसे में तो मंदिर का शिव सा होना,
मौन रहना ही श्रेष्ट है,
चाहे कोई कितनी ही घंटी बजाये,
उत्तर ना दो,
प्रतिध्वनि के आभाव में,
बेचारा लौट जायेगा,
प्रिज्म से सतरंगी निकालने में नाकाम,
आयने में खुद को ही पराबर्तित कर,
परिस्थितियों की कहानियाँ गढ़ेगा,

कैसे लिया ये फैसला ?

मुझे याद है पहलीबार, 
तुम आये थे मेरे पास,
मानवता प्रेमी बनकर,
तुमने ज्ञान की बातें की,
विज्ञान की बाते की,
सहयोग की बातें की,
सफलता की बाते की,
सहजता की बातें की,
मुझे भी अच्छी लगी,
तुम्हारी अच्छी-अच्छी बातें,   
इसीलिए आदर भी था तुम्हारे लिए,
पर मुझे नहीं पता था,
एक दिन तुम भी,
वही करोगे जो और करतें है,
मजाक बनाओगे मेरी सहजता का,
प्रणय निबेदन लेकर आओगे,
अपनी कविताओं से जोड़ोगे,
और परेशानी का कारन बनोगे,
तुम्हारी बातों से लगा था,
जीवन को समझते हो तुम,
डिज़ाइन और पैटर्न,
प्रकृति और मनोविज्ञान,
जिक्र किया था तुमने बार-बार,
फिर कैसे की तुमने गलती ?
बिना सोचे समझे,
कैसे लिया ये फैसला ?
मुझे लगा था तुम स्थिर हो,
पर तुम्हारी फुहर सी हरकतें,
तुम्हारी बदहाली की व्यथा सुनाती है,
एक निवेदन मेरी भी है तुमसे,
अपनी बदहाल व्यथा को,
मुझसे एक कोस दूर रक्खो,  
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वैसे,
खुबसूरत होता है सचमुच,
अच्छा लगा,
तुम्हारा प्रणय निवेदन,
एक बार तो मैं डर ही गयी थी,
पर मेरा मना करना,
और तुम्हारा उसका सम्मान, 
इतनी सहजता से,
मुझे तो अब्ब भी विश्वाश नहीं,
डिज़ाइन और पैटर्न,
प्रकृति और मनोविज्ञान,
तो कुछ और ही कहते है,

Thursday, December 18, 2014

भ्रम

मेरे कहे हुए शब्द
कई बार मुझे ही,
समझ नहीं आते,
अन्तराल पर,
अपने अर्थ खो देते है,
अपना स्वरुप बदल लेते है,
और फिर जो सुनते है,
वे भी अपना ही अर्थ लगाते है,
कानो से होते हुए,
जब पुनः मेरे पास आता है,
मैं मेरे शब्दों को पहचान ही नहीं पाता,
अर्थो का यूँ रूप बदलना,
सापेक्षता का तिलस्म,
मैं तो परेसान हो गया हूँ,
कैसे कहूँ जो कहना है,
कैसे समझाऊँ जो समझाना है,
एक बात तो स्पस्ट है,
मुझे भी नहीं मालूम,
अब मुझे क्या कहना है ?
कैसे मालूम होगा?
ह्रदय और मष्तिस्क,
सोचता है कुछ और,
महशुश करता है कुछ और,
मुँह कहता है कुछ और ही,
कान तक पहुँचते-पहुँचते,
कुछ और ही हो जाता है

Wednesday, December 10, 2014

अहंकार-भ्रस्टाचार

भ्रस्टाचार और कुछ नहीं,
शास्त्रों की ही बोली है,
राजनीती की पहली कक्षा,
शाम-दाम-दंड-भेद-निति सिखाती है,
संघर्ष और सामर्थ को ही,
जीने का कारन बताती है,
यह तो विज्ञान के,
बरदान और अभिशाप जैसा ही है,
जो सिर्फ विवेक पर निर्भर है,
और विवेक आचरण का साथी,
आचरण अभ्यास का अनुचर,
अभ्यास आकांक्षा का रूप,
आकांक्षा अहंकार के साथ,
उन्माद से खेलता है,
आकांक्षा अहंकार बिना,
एकाकी सहते हुए जीता है,

Tuesday, December 9, 2014

मुझे तो तलाश है पारिजात की

तुम्हे पाने की,
ईस्वर से मैंने,
कभी प्रार्थना नहीं की,
क्यूँ करूँ ?
तुम वो खुबसुरत गुलाब हो,
जिसकी सुन्दर पंखुड़ियाँ,
कल तक जमी पड़ बिखड़ी होंगी,
ये तो दार्शनिक तथ्य है,
पर !
सच तो यही है,
मेरी अक्षमताओं का दंण्ड,
तुम्हे ना मिले,
तुम्हारे कुम्हलाने का कारन,
मैं ना बनू,
इसीलिए,
मुझे तो तलाश है पारिजात की !
जिससे अक्षुण्ण रखूँगा,
अपनी प्रसन्नता को,
जिबंत रखूँगा,
तुम्हारी सुन्दरता को,
तुम ईस्वर का उपहार,
हो सकती हो मेरे लिए,
पर !
फिर भी इस्वर से,
नहीं मांग सकता तुम्हे,
ये सब मैं ईस्वर पर ही छोड़ता हूँ,
क्यूंकि सदा मैं,
ईस्वर से,
उनको ही मांगता आया हूँ,