परिस्थितियों पर,
मेरी व्याख्याएँ,
मेरी दृष्टिकोण,
मेरी भावनाओं की,
उहापोह,
बस वैसी ही है जैसी,
सीसे के भीतर से,
बाहर तो देख सकते है,
पर बाहर से भीतर नहीं,
एक तरफा ही दिखता है,
मैं कितनी ही कोसिस क्यूँ न करूँ,
तुम्हारे भीतर नहीं झांक सकता,
तुम्हारे मन की बात नहीं जान सकता,
और जाना भी नहीं जा सकता,
वैसे मुझे जानने की जरूत भी नहीं,
मुझे तो बस,
ध्यान रखना चाहिए,
की ये एक दिवार है,
जिसेके मैं बाहर हूँ,
और जिसका हिस्सा,
मैं हो ही नहीं सकता,
कुछ भी अनुमान लगा लेना,
मेरी बाध्यता है,
पर एक कौतुहल,
मानवीय स्वभाव,
प्रेरित करती है,
उद्वेलित करती है,
और भीतर एक प्रश्न उठता है,
क्या जानने को,
हिस्सा होना जरुरी है,
बिना हिस्सा हुए,
पारदर्शी नहीं हुआ जा सकता,
ऐसा हो सकता है,
हिस्सा होने की जरूरत भी नहीं,
बस सीसे से फ़िल्टर निकालना होगा,
और साबधानी रखनी होगी,
पर !
सीसा अगर कमजोर हो तो,
खतरनाक भी हो सकता है,
ऐसे में तो मंदिर का शिव सा होना,
मौन रहना ही श्रेष्ट है,
चाहे कोई कितनी ही घंटी बजाये,
उत्तर ना दो,
प्रतिध्वनि के आभाव में,
बेचारा लौट जायेगा,
प्रिज्म से सतरंगी निकालने में नाकाम,
आयने में खुद को ही पराबर्तित कर,
परिस्थितियों की कहानियाँ
गढ़ेगा,