चलता आया हूँ,
दूर तक,
बादियों में,
बरसों से,
अब तक ना रुका था,
नहीं लुभा पाई थी ये नज़ारे,
भीतर कुछ और ही की ख्वाहिश थी,
न जाने कैसे खिंच गया,
रुक गया,
और भूल गया सब,
अब जबकि नींद से जागा हूँ,
खुद को “तुम्हारे” पात्र नहीं पता हूँ,
ऊपर से “तुम्हारा” रूखापन,
आगे चलने को बाध्य तो हूँ,
पर खिचंता है मन,
अब तक जो दुरी,
यूँ ही कट गयी थी,
अब बड़ी बोझिल सी लगने लगी है,
जानता हूँ,
कुछ दूर तक ही,
स्मृतियों को साथ रख पाउँगा,
और बाद में
“तुम्हे” ही किसी न किसी,
और रूप में पाउँगा !
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