मैं नहीं जानता कैसे,
उजाले की कोशिश में,
मैं दोपहर का धुप हो जाता हूँ,
दोपहर का धुप होना भी,
प्रकृति में जरूरी है,
पर तुम भागती हो,
छाँव में छुपती हो,
बल्ब में उजाला ढूँढ लेती हो,
मैं तुम्हे निहार ही नहीं पाता,
क्या करूँ मैं ?
कि तुम शरद की मृदुल धुप में,
खुद ही आओ,
उसकी मृदुलता में खो जाओ,
कि तुम्हे समय की शुधबुध ना रहे,
और मैं तुम्हे बस निहारता रहूँ,
1 comment:
Very Nice Poem
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