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Wednesday, November 26, 2014

मैं संभालना जानता हूँ मुझको

मैं संभालना जानता हूँ मुझको,
क्योंकि मैं अब तक बड़ा हुआ नहीं,
मुझे लगता है अब तक,
मैं उस बच्चे सा हूँ,
जो लड़ता है,
झगरता है,
चिल्लाता है,
मिटटी एक दुसरे पे फेंकता है,
रोता है,
जिद्द करता है,
कट्टी करता है,
मुह फुलाये अलग बैठता है,
फिर से आ कर खेलता है,
प्रेम करो खुश होता है,
डांटो तो रोता है,
नक़ल करता है,
पर बनावट नहीं कर पाता,
चेहरे पे नकाब लगा नहीं पाता,
जिसे न तो आज का कुछ पता है,
न कल का,
न आने वाले कल का,
वो स्मृतियों के भार से दबता नहीं,
बस “छण” को जीता है,


Tuesday, November 25, 2014

मेरी कवितायेँ

मेरी कवितायेँ ,
मेरी मुर्खताओं को,
मेरी बचपना को,
मेरी कौतुहलता को,
सुन्दरता से चित्रित करती है,
विनम्रता से कहती है,
कैसे मैं भटकता हूँ,
कितना मैं अस्थिर हूँ,
मेरी दृष्टी गतिमान है,
सुन्दर-कुरूप, 
सच-झूठ,  
अच्छा-बुरा,
जानने में व्यस्त हूँ,
समझने में मस्त हूँ,
बताने में उत्सुक हूँ,
......
अब तक तो मुझे,
चुप हो जाना चाहिये,
मौन हो जाना चाहिए ,
ध्यानस्त हो जाना चाहिए,

Wednesday, November 19, 2014

संबादहीनता

संबादहीनता,
एक ऐसी गहरी-चौड़ी खाई बनाता है,
जो संबाद की,
संभावनाओं को ही खा जाता है,
ऐसा भ्रम जो सिर्फ प्रतीत होता है,
होता नहीं,
मष्तिस्क की उहा-पोह में फँसा होता है,
भावनाओं के ज्वार का उतार चढ़ाव,
उफनते समंदर के फेन सा,
ढक देता है वास्तविकता को,
और व्यक्ति का अहंग,
उसे साफ करने से रोकता है,
और यहीं से शुरू होता है,
उसकी दुःख की अंतहीन यात्रा,
जो या तो उसके मरने से,
या फिर उसके अहंग के मरने से ही,
खत्म होता है,
और तब तक वह,
घुटन की दलदल में फँसा,
खुद से ही संबाद करता रहता है,

संदेह का साँप

संदेह का साँप,
गले में डाल,
अपने डर को,
मेरा नाम मत दो,  
अनजाने ही सही,
मैंने खुशियाँ ही दी होंगी,
जरा ठहर कर,
आएने में झांक कर देखो,
तुम्हे तुम्हारा फुफकारता साँप,
नजर आएगा,
जिसे तुमने,
खुद ही कस के पकड़ रक्खा है,
मेरे गुनगुनाने को,
जो भ्रमवश तुमने,
बहेलिया सा समझ लिया है,
जरा रुक कर,
जाँच कर,
परख तो लो,
एक बार निर्भय हो,
जीने का साहस जूटा तो लो,
याद रक्खो,
डर तुम्हे हमेशा,
दिग्भ्रमित ही करेगा,
और सहास तुम्हारी रक्षा,
मै जानता हूँ,
इसमे तुम्हारा कोई दोष नहीं,
क्योंकि ?
बचपन से ही तुम्हे,
डर ही सिखाया गया है,  

Tuesday, November 18, 2014

मैं दोपहर का धुप हो जाता हूँ

मैं नहीं जानता कैसे,
उजाले की कोशिश में,
मैं दोपहर का धुप हो जाता हूँ,
दोपहर का धुप होना भी,
प्रकृति में जरूरी है,
पर तुम भागती हो,
छाँव में छुपती हो,
बल्ब में उजाला ढूँढ लेती हो,
मैं तुम्हे निहार ही नहीं पाता,
क्या करूँ मैं ?
कि तुम शरद की मृदुल धुप में,
खुद ही आओ,
उसकी मृदुलता में खो जाओ,
कि तुम्हे समय की शुधबुध ना रहे,
और मैं तुम्हे बस निहारता रहूँ,


Wednesday, November 12, 2014

अब तक ना रुका था

चलता आया हूँ,
दूर तक,
बादियों में,
बरसों से,
अब तक ना रुका था,
नहीं लुभा पाई थी ये नज़ारे,
भीतर कुछ और ही की ख्वाहिश थी,
न जाने कैसे खिंच गया,
रुक गया,
और भूल गया सब,
अब जबकि नींद से जागा हूँ,
खुद को “तुम्हारे” पात्र नहीं पता हूँ,
ऊपर से “तुम्हारा” रूखापन,
आगे चलने को बाध्य तो हूँ,
पर खिचंता है मन,
अब तक जो दुरी,
यूँ ही कट गयी थी,
अब बड़ी बोझिल सी लगने लगी है,
जानता हूँ,
कुछ दूर तक ही,
स्मृतियों को साथ रख पाउँगा,
और बाद में
“तुम्हे” ही किसी न किसी,
और रूप में पाउँगा !
       

Saturday, November 8, 2014

“दुःख” जीवन का सत्य नहीं

“फुहर्ता” सहजता नहीं,
“बेढंग” बुद्धिमानी नहीं,
“सुन्दर” कमल,
“कमल” सुन्दर,
“दुःख” जीवन का सत्य नहीं,