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Wednesday, October 15, 2014

विडम्बना है

आश्चर्य है,
मेरी कमजोरी,
मेरी असमर्थता,
मुझे घुटने पे आने नहीं देती,
बच्चे सा जिद नहीं करने देती,
आज अगर मै,
मजबूत होता,
समर्थ होता,
तो लेट गया होता,
तुम्हारे कदमो में,
और,
घुटने टेक तुम्हारा साथ मांगता,
विडम्बना है,
पहली बार,
किसि कमजोर को, 
असमर्थ को,
उसकी असमर्थता के कारन ही,
झुकते हुए नहीं देख रहा,

Friday, October 10, 2014

एक ऊर्जा का श्रोत

आज  भी मुझे,
मेरी भीतर की शक्ति,
का अहसास  दिलाता है,
प्रेरित करता है,
अडिग रखता है,
प्रतिकूलताओं में स्थिर रखता है,
चाचा चौधरी-साबू  (के पास) का,
एक पुतला,
जिसे कितनी ही बार चित्त करो,
वह उठ खड़ा  होता है,
ऊर्ध्वाधर गुरुत्वकेंद्र,
उसकी शक्ति का श्रोत है,
जो उसे कभी गिरने नहीं देती,
पिंड का उसे अपनी ओर खीचना,
ही इसका रहस्य है,
मुझे भी भीतर,
एक ऊर्जा का श्रोत दिखता है,
जो सायद भक्ति है,
श्रद्धा है, विश्वाश है,
जो सत्य है,
जो शिव है,
जो सुन्दर है,
जो अनंत है,
मेरे ह्रदय में उसका होना,
अनंत का मुझे
अपनी ओर खीचना,
ये प्रेम ही है,
जो मुझे एकाग्र करती है,
जिवंत बनाये रखती है,

Wednesday, October 8, 2014

"विशिष्टता" का भ्रम हमारा है

मेरी महत्वाकांछा,
तब मर्माहत हुई,
जब उसने,
तराई में फैली,
एक फूलों से लदी,
“झुकी” सरसों के पौधे को देखा,
लम्बी कतारों में,
वो कुछ अनोखा नहीं था,
औरों की तरह  वो भी,
उस चक्र का हिस्सा  भर था,
जिसमे उसे अंकुरित होने से,
बीज बनाने तक जीवित रहना था,
पौधों से-जीवजंतुओं से,
कुछ तो अलग है,
जीवन मानव का,
जिसकी सोच अनंत है,
जो "अंतहीन" प्रयाश कर सकता है,
शरीर जर्जर  हो सकता है,
पर  सोच नहीं,
इस हाड़मांस ने अद्भुत कार्य किये है,
हर बार की जीत उसे,
कुछ और आगे  को प्रेरित करती है,
और नए कीर्तिमान बनते बिगरते रहते है    
पर !  
फिर भी वह आखिर,
सरसों के उस पौधे ही की तरह है,
जो एक नियत चक्र का हिस्सा मात्र है,
अब  जबकि सब साफ दिखता है,
महत्वाकाँछा के मरते ही,
तुलनात्मक प्रतिस्पर्धा  से मुक्त,
उस दुख-शोक  से बहार,
जो "मह्त्वके कारन ही मर्माहत था,
अब पुनर  जीवित है,
नए रूप में,
नए  रंग में,
नए सोच में,
नए राग में,
झूमता है मेरा मन,
ठीक उसी सरसों  के पौधे को देख,
जो उसी कतार का हिस्सा है,
जिसमे सब उसी के जैसे है,
उसकी विशिष्टता उसे झुकाती है,
सबके  साथ ही,
हवा के झोंके में डोलना,
वारिस की फुहारों में भीगना,
रोमांचित  करता  है,
"विशिष्टता" का भ्रम हमारा है,
नियति ने तो हमें वही बनाया है,
जो हम है,
और जो हम है,
वही खूबसूरत है,
आनंद ही आनंद है,
असीम और अनंत है,  

Wednesday, October 1, 2014

जिवंत होने का प्रमाण

समझने की,
कुछ जानने की,
आदत,
रोमांचित करती है,
हर पल जीवित रखती है,  
जित की ख़ुशी,
हार का दर्द,
मिलने का रस,
बिछड़ने का छोभ,
सफलता-बिफलता,
आशा-निराशा,
सुख-दुःख,
महशुस होता है,
संबेद्नाये प्रकम्पित करती है,
भीतर तक गहरे,
प्रभाबित करती है,
बस “बुलबुले” के फूटते ही,    
सब कुछ अदभुत सा लगता है,
रोमांचित सा करता है,
विविध विद्या-कला,
शब्द-रूप-रस-गंध-स्पर्श,
में लीन बिलिन,
शुध-बुध खो सा जाता है,
स्वयं दृश्य और स्वयं ही द्रष्टा,
स्वप्न से बहार जीवित-जागृत,
जिवंत होने का ही तो प्रमाण है, 

क्यूँ लोग तुझे मूर्तियों में ढूढ़ते है

आज मुझे अहसास हुआ
क्यूँ लोग तुझे?
मूर्तियों में ढूढ़ते है,
जब लोग,
लोगों से त्रस्त होते है,
समय की मार सहते है,
मन ही मन घुटते है,
औरो के बिकारो की बदबू झेलते है,
और चुप रहने को बाध्य होते है,
तो उनके पास एक ही बिकल्प होता है,
की मन ही मन तुझे पुकारे,
कुछ भी आकार दे,
तुझे अपने पास देखे,
तुझे महसूस करे, 
जहाँ सब कुछ ख़त्म होता हुआ दिखे,
फिर भी,
तुझे देखते ही,
उलझनों की,
सुलझने की आस दिखे,
इसीलिए लोगों ने तुझे आकर दियें है,
मूर्तियों मे,
कण-कण में तुझे ढूढ़ते है, 
तुझे पूजते है,
की अपना दुख तुझे अर्पण कर,
कुछ अच्छा महसूस कर सके,