मेरी महत्वाकांछा,
तब मर्माहत हुई,
जब उसने,
तराई में फैली,
एक फूलों से लदी,
“झुकी”
सरसों के पौधे को देखा,
लम्बी कतारों में,
वो कुछ अनोखा नहीं था,
औरों की तरह
वो भी,
उस चक्र का हिस्सा भर था,
जिसमे उसे अंकुरित होने से,
बीज बनाने तक जीवित रहना था,
पौधों से-जीवजंतुओं से,
कुछ तो अलग है,
जीवन मानव का,
जिसकी सोच अनंत है,
जो
"अंतहीन" प्रयाश कर सकता है,
शरीर जर्जर
हो सकता है,
पर सोच नहीं,
इस हाड़मांस ने अद्भुत कार्य किये है,
हर बार की जीत उसे,
कुछ और आगे
को प्रेरित करती है,
और नए कीर्तिमान बनते बिगरते रहते है
पर
!
फिर भी वह आखिर,
सरसों के उस पौधे ही की तरह है,
जो एक नियत चक्र का हिस्सा मात्र है,
अब जबकि सब साफ दिखता है,
महत्वाकाँछा के मरते ही,
तुलनात्मक प्रतिस्पर्धा
से मुक्त,
उस दुख-शोक
से बहार,
जो
"मह्त्व" के कारन ही मर्माहत था,
अब पुनर
जीवित है,
नए रूप में,
नए रंग में,
नए सोच में,
नए राग में,
झूमता है मेरा मन,
ठीक उसी सरसों
के पौधे को देख,
जो उसी कतार का हिस्सा है,
जिसमे सब उसी के जैसे है,
उसकी विशिष्टता उसे झुकाती है,
सबके साथ ही,
हवा के झोंके में डोलना,
वारिस की फुहारों में भीगना,
रोमांचित करता
है,
"विशिष्टता" का भ्रम हमारा है,
नियति ने तो हमें वही बनाया है,
जो हम है,
और जो हम है,
वही खूबसूरत है,
आनंद ही आनंद है,
असीम और अनंत है,