जाना-पहचाना,
रोज-रोज का मिलना-मिलाना,
अचानक ही,
जब अन्जाना सा,
बनने को मजबूर करता है,
भाबनाओं की आकृतियाँ,
चेहरे पर उभर कर ना आयें,
कित्रिम हंसी,
खुश दिखने का प्रयाश,
अजीव सा लगता है,
खुद को समझाने का प्रयाश,
या फिर एक संकेत,
की फर्क नहीं अनजानेपन का,
एक द्वन्द,
जो जीवित हो उठता है,
जब अतीत बार-बार सामने आता है,
मुस्कुराते हुए अलहर्ता से,
बेफिक्र बेपरवाह होने को कहता है,
पर ! स्मृतियाँ कहाँ मानती,
ह्रदय में उतर कर,
प्रवाहित करती है रागों को,
प्रकम्पित शरीर,
स्वांशों का उछावाश,
प्रतिविम्बित कर ही देता है,
बिना शब्दों के भी,
भीतर का सच कह ही देता है,
1 comment:
Very Nice Poem
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