Pages

Friday, February 28, 2014

“बुद्ध” का निर्माण

जियो और जीने दो,
एक सरल वाक्य,
प्रकृति को चुनौती देती है,
परस्पर निर्भरता में भी,
स्वच्छंदता-स्वतंत्रता,
और सम्मान ढूढती है,
जबकि प्रकृति तो,
उर्जा का प्रवाह,
और रूपांतरित होते रहना है,
पर साधारण मश्तिस्क तो,
देव-दानव,
समर्थ-असमर्थ,
पोषक-शोषक,
के रूप में इसे देखता है,
प्रकृति के बनावट की अनदेखी करता है,
इस कलिष्ट प्राकृतिक तंत्र  पर,
नियंत्रण का प्रयास ही,
“बुद्ध” का निर्माण करता है,

Saturday, February 22, 2014

निक्षेपो पे कविताओं की कलियाँ

अकर्मण्यता,
अयोग्यता,
धनहीनता,
अन्ततः कुंठित ही करता है,
फिर भीतर का ज्वार,
बौधिक बाढ़ सा आता है,
निक्षेपो पे कविताओं की कलियाँ,
रंग बिरंगी खिलती है,
हार को,
थकान को,
कमजोरियों को,
खुद में समेट लेती है,
और कुछ नहीं तो,
विचारो की खुसबू बिखेर देती है, 

Friday, February 21, 2014

दासत्व का अहसास

ईच्छाओं से बंचित,
जीने की आदत सी हो गई है,
अपेक्षाएं अतिश्योक्ति तो नहीं,
पर !
नैसर्गिक,
स्वच्छन्दता-स्वतंत्रता,
सभ्यता की दीबारों में कैद,
स्वच्छ हँसी-अल्हर्ता भोलापन,
घुट-घुट कर दम तोड़ रहा,
ईच्छाओं से दिशाओं में,
यायावारी !
भी छीन लिया गया है,
परमिट की थूक चाटने को मजबूर,
सीमाओं में बंटी धरती,
सभ्यता से बलात्कारित,
पीड़ित रोती-बिलखती अन्व्याही माँ की तरह,
बच्चे को आँचर से ढांक भी नहीं सकती,
नियमो की चाबुक,
ह्रदय को छलनी करता है,
बलात सभ्य होने को कहता है,
मुझे तो सभ्यता-बर्बरता एक ही लगता है,
जो मुझे गोरैये की तरह,
फुदकने से रोकता है,
कोयल की तरह गाने नहीं देता,
मोर सा नाचने नहीं देता,
बसंती हवा का झोंका नहीं बनने देता,
खरीद-फरोक्त में सिमटकर,    
“नोट-रूपये” पे,
जीने को मजबूर करता है,  
मैं बलात सभ्यता का दास बनाया गया हूँ,
मुझे पता है,
कड़ोड़ो लोग बिना सभ्यता के,
एक साथ रह नहीं सकते,
और नियम अंततः,
सभी को दासत्व का अहसास दिलाएगा ही,

Monday, February 17, 2014

कभी नहीं सोचा होगा.....

कभी नहीं सोचा होगा,
चिकने फर्श ने,
की उसकी स्वच्छता चिकनापन ही,
किसी के फिसलने का कारन होगा,
अनजाने ही व्यथित करेगा,
संभल कर चलने बाले को भी,
ठीक उसी तरह,
बेपरवाह चीटियों की कतार को,
कब हम अनजाने ही कुचलतें है,
हमें पता भी नहीं चलता,
सम्बेदनाये भी नहीं रोक पाती,
इन कुदरती बिपदाओं को,
कुदरती इसलिए क्योंकि?
ये अनियंत्रित है,
कभी-कभी हमारे कष्ट,
ऐसे ही अनजाने कारणों से होता है,
ठीक उसी तरह,
जैसे की लोहे पर कई चोट,
लोहे को आहत नहीं कर सकता,
अगर वह ठंढा हो,
यह जाने-अनजाने पर निर्भर नहीं करता,
और अगर लोहा गर्म हो,
तो हलकी चोट भी,
उसे प्रभाबित कर सकती है,
ठीक उसी तरह,
हमारा मन भी,
आहत होता है,
जो पुर्णतः,
तात्कालिक कारणों से प्रेरित होता है,
यह किसी और की नहीं,
हमारे खुद के,
मानसिक स्तर पर निर्भर करता है,

Thursday, February 13, 2014

दृष्टिकोण

कुछ बहुत दूर,
कुछ और कुछ नहीं के बिच,
अँधेरा और उजियारा,
कुछ कहती है,
तारों का दूर आना या जाना,
रंगों से परिभाषित करना,
तारों की कहानी कहना,
इसमे हमारे दृष्टिकोणों का,
कोई असर नहीं,
क्योंकि ?
प्रकृति या ब्रह्मांडीय घटनाओ को,
परिभाषित किया जा सकता है,
सूत्रित किया जा सकता है,
निष्कर्स तक आया जा सकता है,
पर क्या ?
ऐसी बिशेसज्ञता हमारे पास है,
जो देख कर ही बताये,
किसी की मन की बातें,
जो बहुत पास हो,
आबरण के भीतर,
झांक पाए,
क्योंकि ?
भौतिक घटनाओं की तरह,
इसका कोई क्रम नहीं,
ना ही कोई सुत्र,
इसीलिए यह पूरी तरह,
हमारे दृष्टिकोणों से प्रेरित होता है,
और हम जैसा देखना चाहते है,
वैसा ही प्रतीत होता है,
और निष्कर्ष अनिश्चित,

Tuesday, February 11, 2014

बनाबटी इमानदारी

बनाबटी इमानदारी,
एक कला है,
ऐसी योग्यता है,
जो सफलता के शिखर तक,
अनोखी राह बनाती है,
तेज दिमाग,
जो भ्रम उत्पन्न करे,
और जब तक लोग संभले,
नया भ्रम सामने लाये,
अनोखी डिग्रियां,
कैम्पस/सिस्टम की लौबियाँ,
सरकारी खजाने से,
ऐसी नहरें निकालती हैं,
जो आरक्षित लोगों तक ही दम तोड़ देती है,
और अनोखे पम्प का तंत्र,
जो अनारक्षित को सोंख कर,
सरकारी खजाने को भरती है,
इस चक्र को चलाने को,
एक ही योग्यता चाहिए,
जोंक का भाई जोंक,
बस बनाबटी इमानदार चाहिए,

Thursday, February 6, 2014

दुनियाबी तौर तरिके

दूर आसमान में दिखा,
खुबसूरत सा चमकीला गोला,
और पाने की चाह हुई,
हिम्मत हौसले ने पस्त किया,
फिर भी पंख लगा उड़ चला,
जल्द ही पंख जलने लगा,
और मैं जमीं पे गिड़ा,
दिन से रात हुई,
कुछ दिन और बित गया,
रात के अंधियारे को,
उजलाता सुन्दर सा गोला,
फिर चाहत ने उसकाया,
और मैंने उड़ान भरा,
दुरी ने इतना थकाया,
थक कर मैं चूर हुआ,
वापस होने को मजबूर हुआ,
हाथ नहीं कुछ आया पर,
अब भी नीराश नहीं था मैं,
कुछ दिन ही बीते थे,
सहसा चमकता गोला कुछ दूर,
खो सा गया और चल पड़ा छूने,
जल्द ही पानी की लहरे,
भ्रम टुटा गोला छूटा,
कोई बात नहीं,
खुद को समझाया,
चलता चला जा रहा था मैं,
एक दिन एक दुकान में,
दिख गया कुछ वैसी ही चीज,
कीमत नहीं चुका पाया,
सो मायूस था इस बार भी,
अब तक थोडा थक सा गया था,
कल्पना में खो सा गया था,
हाथो में खुबसूरत वही गोला,
रोमांच ने सहसा आँख खोला,
सपना था वो सच नहीं,
पर जहाँ चाह है राह वहीँ,
खुद से ही तरासने को ठानी,
वही चमक अदभुत बनआई,
ख़ुशी की कोई सीमा न थी,
लोग भी खुश हुए,
उन्हें भी चाहत हुई,
कुछ ने खरीदना चाहा,
कुछ ने डराना,
कुछ ने छल,
अब जा के मुझे कुछ पता चला था,
समर्थ-समृधि साथ चलते है,
और सहजता अकेला,
या तो दुनियाबी तौर तरिके,
या फिर ध्यान और ज्ञान,   



[यह कविता विज्ञान, तकीनीकी और प्रौधोगिकी का बानिजियिक और मानव मनोविज्ञान, सभ्यता और बौद्धिकता के संबंधो को दर्शाता है]