Pages

Monday, July 1, 2013

धरती को चक्रों में बुद्ध बनाना है

मैंने जान लिया है,
जीवन को,
इस जगत को,
इस कण को,
ब्रह्माण्ड को,
हाड़-मांस के कर्म को,
इस धरती को,
इस आकाश को,
क्या है सब ?
सब सापेक्ष है,
एक दुसरे के पूरक है,
बस एक ही उत्तर मेरे पास है,
जो इन सबका उत्तर है,
आकाश बरसता है,
धरती भींगती है,
धरती उर्वर हो,
बौद्धत्व जनती है,
सारे आकाश को आलोक लौटती है,
सूर्य चन्द्र तारो का ऋण चुकाती है,
जगत से जीवन का निर्माण है,
जीवन का जगत में अवसान है,
हाड़-मांस का कर्म में,
और कर्म का हाड़-मांस में,
इस कण में,
इस ब्रह्माण्ड में,
यही चक्र विध्यमान है,
मैंने जान लिया है सब,
मैं कौन हूँ ?
मेरा प्रयोजन क्या है ?
प्रयोजन में मैं क्या कहाँ हूँ ?
क्योंकि ?
आकाश को वरसना है,
सूरज को चमकना है,
तारो को टिमटिमाना है,
धरती को चक्रों में बुद्ध बनाना है,
स्पष्ट है,
मैं जीवन हूँ,
मृत्यु मेरी परछाई है,
मैं परछाई में समता हूँ,
पुनः प्रकट हो,
परछाई बनता हूँ,
क्योंकि ?
मैं,
काल-चक्र का हिस्सा हूँ,
और काल-चक्र मेरा हिस्सा,
क्योंकि ?
मेरे अस्तित्व में निहित है,
इसलिए दोनो साथ चलते है,
क्योंकि ?
दोनो एक दुसरे के पूरक है,

No comments: