अचंभित हूँ,
मूर्ति,
तुम्हे देख कर,
कितनी ही मार सही है तुमने,
छैनी और हथोरियों की,
फिर भी मुस्कुरा रहे हो,
और लोग बाध्य होते है,
तुम्हें नमन करने को,
श्रद्धा से झुक जाते है,
पर !
मैंने ऐसा कभी नहीं सुना,
की तुमने किसी को भी कहा हो,
प्रणाम करने को,
फिर भी लोग तुम्हे
पूजते हैं,
पत्थर हो फिर भी,
तुम इस्वर समझे जाते हो,
अजीब है,
जो जिबित है,
उनमे से कुछ,
ठीक उल्टी आशा रखते
है,
श्रद्धा के पात्र हुए बिना,
बिना सहजता त्याग बिना,
इसी चाह में जीते
है,
और कुछ बचे हुए,
इतने सहज होते है,
की उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं होती,
वे बस आशीर्वाद देना जानते हैं,
और बिना कहे ही किसी के,
श्रद्धा के पात्र हो जाते है,
और कुछ ऐसे भी अकल के पत्थर होते है,
जो शीश नवाकर,
आशीर्वाद लेना नहीं,
ओरों के शीश पे पैर रखकर,
इतराते रहते है,
मुझे एक बात समझ
नहीं आती,
क्या श्रद्धा के पात्र होने को,
मौन सहज शांत होना जरूरी है ?
No comments:
Post a Comment