Pages

Monday, December 24, 2012

कब तक सहेंगे ?

कब तक सहेंगे?
कब तक मानेंगे?
इन लाल फीताशाही को,
पुलिस के अरियल रबैये को,
संसद की ढोंग को?
सांसदों की रौब को,
दबंगों की मनमौजी को,
व्यापारियों की कालाबाजारी को,
बस अब और नहीं सहा जाता,
रहना वहाँ मजबूर हो कर,
जहाँ  सत्ता की गलियारी,
अजगर की पेट है,
जो निगल जाती है,
हमारी दर्द भरी चीत्कार,
बर्बरता की हद के पार,
सरकारी दिबारो में  सुरक्षित,
राक्षस हमारी खिल्ली उडातें है,
और हम मुर्ख,
अपनी विवशता की चादर ओढ़े,
उनसे ही फरियाद करतें है,
जो कानो से सिसकियाँ सुनने के आदि हैं,
आँखों से अश्लीलता देखते है,
और जिनका  दिमाग क्रूरता से  भरा  है,
उन्हें पता है,
हम रोजी रोटी में उलझे है,
हमें थकाना इतना कठिन भी नहीं है,
दोहरे मानदंडो और सियाशी आश्वासनों,
के जाल में हम हर बार फंश जाते है,
हमारे खून के उबाल ठंडी हो जाने तक,
"गाँधी और आहिंसा" का भाषण करते है,
न्याय मानवाधिकार की दुहाई देतें है,
और हम है की इन कायरो के झांसे में,
हर बार अपनी नैतिक पराजय स्वीकार करते है,
हम क्या है?
कौन से आम आदमी है?
जो इनका प्रतिकार नहीं कर सकते,

No comments: