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Friday, October 14, 2011

क्यों चल पड़ा है, तूँ उसी पुरानी राह.....


क्यों चल पड़ा है,
तूँ उसी पुरानी राह,
जब नित नूतन प्रभात आता है,
नित नूतन सुरभि से सुरभित ये जग,
तूँ खोज नए राह,
कुछ रोमांचित हो,
उठ थोरी और परिश्रम,
तुझे नए गंतब्य तक ले जायेगा,
तूँ गीत ख़ुशी के गायेगा,
और  तूँ हर्षित होगा,
जब आत्मा भी ब्याकुल है,
नए देह धरने को,
तेरा देह भी नित नए आकार लेता है,
फिर क्यों तूँ डरता है,
बस चल पड़,
अनजानी राह,
फूलों की कुसुम वाटिका की ओर,
तूँ स्वयं ही पहुँच जायेगा,
अनजाने ही तूँ नयी रगों को रचेगा,
चिड़ियों के कलरव संग झूमेगा,
जब नदियाँ नहीं रूकती रोड़े से,
अनजाने ही पहुँच जाती सागर की ओर,
तब बार-बार एक ही राह में चल-चल कर,
तूँ कैसे थकता नहीं,
परिधि के एक ही बिंदु पे बार-बार,
-आ कर कुछ तेरे हाथ आता नहीं,
जब तुझे पता है परिवर्तन ही नियम है,
हर छन नया है,
कुछ सहेज नहीं रखना है,
तो बस चल पड़ उसी ओर,
जहाँ तेरा मन जाये,
जहाँ तूँ गाए,
पाकर नयी डगर,
छोर सभी कुछ उसी प्रभु पड़,
बस चलता जा चलता जा,
नहीं कभी तू थकेगा,
सदा आनंद में डूबा रहेगा,
जब लीन बिलीन तूँ प्रकृति में चलेगा,


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