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Monday, October 10, 2011

मानव ना बनाना.....


ना जाने कब से,
घुटता आ रहा हूँ,
दिवारों से घिरा,
 आसमान तक जाता मन,
पर !
किलकारियां मैं भर नहीं पाता,
किसी से कुछ कह नहीं पाता,
जी भर रो नहीं पाता,
सभ्य होने के नियमो को झेल नहीं पाता,
मुखौटे मैं लगा नहीं पाता,
झूठ में हंस नहीं पाता,
हाँ में हाँ मिला नहीं पाता,
सच को मैं दबा नहीं पाता,
कछुये सा सिमट कर अब,
अकेला रह गया हूँ मैं,
हे इश्वर,
फिर से मानव ना बनाना,
मानव ही बनाना हो तो,
सतयुग में लाना,
या फिर,
तितली, पंछी, फूल बनाना,
पेड़, नदी, पहाड़ बनाना,
बारिस कि बुलबुले बनाना,
संगीत के स्वर बनाना,
इन्द्रधनुष के रंग बनाना,
पर !
मानव ना बनाना.

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